क्या था मोदी सरकार का चुनावी बॉन्ड और सुप्रीम कोर्ट ने इसे क्यों कर दिया क्लीन बोल्ड, जानें सबकुछ
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सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड पर अहम फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक करार दिया है। शीर्ष अदालत ने चुनावी बॉन्ड की बिक्री पर रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ ने इस संबंध में गुरुवार को फैसला सुनाया। शीर्ष अदालत ने कहा स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 2019 से अब तक चुनावी बॉन्ड से जुड़ी पूरी जानकारी देनी होगी। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि चुनावी बांड योजना, आयकर अधिनियम की धारा 139 द्वारा संशोधित धारा 29(1)(सी) और वित्त अधिनियम 2017 द्वारा संशोधित धारा 13(बी) का प्रावधान अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है।
शीर्ष अदालत ने आदेश दिया कि चुनावी बांड जारी करने वाला बैंक, यानी भारतीय स्टेट बैंक, चुनावी बांड प्राप्त करने वाले राजनीतिक दलों का विवरण और प्राप्त सभी जानकारी जारी करेगा। उन्हें 6 मार्च तक भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को सौंप देगा। ईसीआई इसे 13 मार्च तक आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करेगा। साथ ही राजनीतिक दल इसके बाद खरीददारों के खाते में चुनावी बांड की राशि वापस कर देंगे। जानते हैं आखिर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के मायने क्या हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार पर क्या असर पड़ेगा।
इलेक्टोरल बॉन्ड क्या है?
चुनावी बांड ब्याज मुक्त धारक बांड या मनी इंस्ट्रूमेंट था जिन्हें भारत में कंपनियों और व्यक्तियों द्वारा भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की अधिकृत शाखाओं से खरीदा जा सकता था। ये बांड 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, 1 लाख रुपये, 10 लाख, और 1 करोड़ रुपये के गुणकों में बेचे जाते थे।किसी राजनीतिक दल को दान देने के लिए उन्हें केवाईसी-अनुपालक खाते के माध्यम से खरीदा जा सकता था। राजनीतिक दलों को इन्हें एक निर्धारित समय के भीतर भुनाना होता था। दानकर्ता का नाम और अन्य जानकारी दस्तावेज पर दर्ज नहीं की जाती है और इस प्रकार चुनावी बांड को गुमनाम कहा जाता है। किसी व्यक्ति या कंपनी की तरफ से खरीदे जाने वाले चुनावी बांड की संख्या पर कोई सीमा नहीं थी।
सरकार ने 2016 और 2017 के वित्त अधिनियम के माध्यम से चुनावी बांड योजना शुरू करने के लिए चार अधिनियमों में संशोधन किया था। ये संशोधन अधिनियम लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम , 1951, (आरपीए), कंपनी अधिनियम, 2013, आयकर अधिनियम, 1961, और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (एफसीआरए), 2016 और 2017 के वित्त अधिनियमों के माध्यम से थे। 2017 में केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को वित्त विधेयक के रूप में सदन में पेश किया था। संसद से पास होने के बाद 29 जनवरी 2018 को इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम की अधिसूचना जारी की गई थी।
कोर्ट के फैसले की मुख्य बातें
- चुनावी बांड योजना, आयकर अधिनियम की धारा 139 द्वारा संशोधित धारा 29(1)(सी) और वित्त अधिनियम 2017 द्वारा संशोधित धारा 13(बी) का प्रावधान अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है।
- भारतीय स्टेट बैंक चुनावी बांड प्राप्त करने वाले राजनीतिक दलों और उनसे प्राप्त जानकारी की डिटेल जारी करे। साथ ही इसे मार्च तक भारतीय चुनाव आयोग (ECI) को सौंपे।
- चुनाव आयोग को 13 मार्च तक इस जानकारी को अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करना होगा। राजनीतिक दल इसके बाद खरीददारों के खाते में चुनावी बांड की राशि वापस कर देंगे।
- इस योजना से सत्ताधारी पार्टी को फायदा उठाने में मदद मिलेगी।
- चुनावी बांड योजना को यह कहकर उचित नहीं ठहराया जा सकता कि इससे राजनीति में काले धन पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी।
- दानदाताओं की गोपनीयता महत्वपूर्ण है, लेकिन पूर्ण छूट देकर राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता हासिल नहीं की जा सकती।
स्कीम को क्यों दी गई थी चुनौती?
इस योजना को जनवरी 2018 में घोषित होने के तुरंत बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), कॉमन कॉज और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) सहित कई पार्टियों द्वारा चुनौती दी गई थी। कॉमन कॉज और एडीआर का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील प्रशांत भूषण ने तर्क दिया था कि नागरिकों को वोट मांगने वाली पार्टियों और उम्मीदवारों के बारे में जानकारी पाने का अधिकार है। हालांकि कंपनियों के वित्तीय विवरण कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय की वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं, जो सैद्धांतिक रूप से किसी को दान के स्रोत को जानने की अनुमति दे सकते हैं।
भूषण का कहना था कि भारत में लगभग 23 लाख पंजीकृत कंपनियां हैं। भूषण ने तर्क दिया था कि इस पद्धति का उपयोग करके यह पता लगाना कि प्रत्येक कंपनी ने कितना दान दिया है, एक सामान्य नागरिक के लिए संभव नहीं होगा। सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने योजना में और अधिक कथित कमियों पर प्रकाश डाला। उनका कहना था कि इस योजना में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए दान को चुनाव प्रक्रिया से जोड़ा जाना आवश्यक हो। उनका कहना था कि एसबीआई के स्वयं के एफएक्यू अनुभाग में कहा गया है कि बांड राशि को किसी भी समय और किसी अन्य उद्देश्य के लिए भुनाया जा सकता है।
केंद्र सरकार के लिए क्या हैं मायने
सुप्रीम कोर्ट के फैसले को केंद्र सरकार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। केंद्र सरकार का कहना था कि सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का तर्क था कि योजना का फोकस “गुमनाम” सुनिश्चित करना नहीं है, बल्कि ‘गोपनीयता’ सुनिश्चित करना है। निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने के शीर्ष अदालत के 2019 के फैसले का जिक्र करते हुए उन्होंने तर्क दिया कि दाताओं को निजता का अधिकार है जब तक कि जानकारी वास्तविक सार्वजनिक हित का स्रोत न हो, इस मामले में लोग अदालत का रुख कर सकते हैं।
सॉलिसिटर जनरल ने अदालत को उन तरीकों का विस्तृत विवरण भी दिया था कि संसद, सरकार और चुनाव आयोग ने पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में काले धन के प्रसार को रोकने का प्रयास किया है। उन्होंने दावा किया कि चुनावी बांड योजना विभिन्न प्रकार की योजनाओं, संशोधनों और नीतियों के साथ ‘प्रयोग’ करने के बाद पेश की गई थी। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यदि योजना में कोई खामियां थीं, तो इसे रद्द करने के लिए केवल इतना ही पर्याप्त कारण नहीं होगा।