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अपने बयान पर कायम हैं बिहार के शिक्षा मंत्री, कहा- आंबेडकर ने मनुस्मृति यूं ही थोड़े जला दी…

बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने रामचरित मानस को विभाजनकारी बताया है। उन्होंने कहा कि रामचरित मानस दलितों, पिछड़ों और महिलाओं को पढ़ाई से रोकता है। चंद्रशेखर ने कहा कि मनुस्मृति ने भी समाज में नफरत का बीज बोया, इसलिए संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने यह पुस्तक जला दी थी। उन्होंने कहा, ‘मनुस्मृति को बाबा साहब अंबेडकर ने इसलिए जलाया था क्योंकि वह दलितों, वंचितों के हक छीनने की बात करती है।’ इस बयान के लिए राष्ट्रीय जनता दल (RJD) नेता की काफी आलोचना हो रही है। भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने चंद्रशेखर के बयान को निंदनीय बताया। बीजेपी ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव निखिल आनंद ने हैरानी जताते हुए कहा कि शिक्षा मंत्री ने नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में ऐसी बातें कीं। खैर, बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने मनुस्मृति कब और क्यों जलाई थी, आज इसकी पड़ताल करते हैं।

बाबा साहेब ने झेला जाति व्यवस्था का दंश

हमारे देश में एक बड़ा वर्ग आज भी जाति प्रथा के अभिशाप से पीड़ित है। महार जाति में पैदा हुए भीमराव आंबेडकर भी जातीय भेदभाव और सामुदायिक नफरत की ताप से बच नहीं पाए। कथित अछूत जाति में पैदा होने के कारण उनके साथ कैसे-कैसे अन्याय हुए, उसे जितना जानेंगे दिल उतना ही बैठता जाएगा। चूंकि बाबा साहेब ने जाति व्यवस्था के दंश को गहराई से महसूस किया, इसलिए उन्होंने इसके खात्मे की दिशा में भी भरसक कदम उठाए। उन्होंने लोगों के बीच जागरूकता अभियान चलाया, आंदोलन किया तो जाति व्यवस्था और छूआछूत पर कई पुस्तकें भी लिखीं जो काफी पठनीय हैं। इसी क्रम में उन्होंने ‘मनुस्मृति’ की प्रतियां जलाकर प्रतीकात्मक संदेश भी दिया।

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मनुस्मृति दहन में ब्राह्मण भी बाबा साहेब के साथ

वो 25 दिसंबर, 1927 का दिन था जब डॉ. आंबेडकर ने मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन किया। महाराष्ट्र के तत्कालानी कोलाबा (अब रायगढ़) जिला स्थित महाड़ गांव में आंबेडकर ने अपने समर्थकों के साथ मनुस्मृति जलाई। दावा तो यह भी किया जाता है कि उनके मनुस्मृति दहन कार्यक्रम का जबर्दस्त विरोध हो रहा था, इस कारण उन्हें इसके लिए कोई जगह नहीं मिल रही थी। तब फत्ते खां नाम के एक मुसलमान ने अपनी निजी जमीन पेश कर दी। आबंडेकर दासगाओं बंदरगाह से ‘पद्मावती’ नाम के एक बोट से पहुंचे थे क्योंकि उन्हें आशंका थी कि बस यात्रा में उन्हें विरोध का सामना करना पड़ सकता है। बहरहाल, आंबेडकर महाड़ गांव स्थित उस जगह पर पहुंचे तो ब्राह्मण जाति के गंगाधर नीलकंठ सहस्रबुद्धे भी मौके पर मौजूद थे।

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वेदी के पास बैनर पर लिखे थे तीन संदेश

वहां मनुस्मृति को जलाने के लिए एक वेदी बनाई गई। वेदी के लिए छह इंच गहरा और डेढ़ फुट वर्ग का गड्ढा खोदा गया। इसमें चन्दन की लकड़ी डाली गई। वेदी इसके तीन तरफ बैनर लगे हुए थे। एक बैनर पर लिखा था- मनुस्मृति की दहन भूमि, दूसरे पर लिखा था- छूआछूत का नाश हो और तीसरे बैनर पर लिखा था- ब्राह्मणवाद को दफन करो। 25 दिसंबर, 1927 को सुबह 9 बजे मनुस्मृति का एक-एक पन्ना फाड़कर डॉ. आंबेडकर, सहस्त्रबुद्धे और अन्य छह दलित साधुओं ने वेदी में डाली। ध्यान रहे कि तब वेदी के पास मोहनदास करमचंद गांधी की तस्वीर भी लगाई गई थी। हालांकि, बाद में जाति व्यवस्था पर डॉ. आंबेडकर और गांधी के बीच काफी गहरे मतभेद उभरे जो आखिर तक बने रहे। डॉ. आंबेडकर ने गांधी और कांग्रेस पार्टी की जाति को लेकर सोच की कड़ी आलोचना की। उन्होंने ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया?’ नाम से पुस्तक भी लिखी।

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मनुस्मृति दहन के वक्त दिलाए पांच संकल्प

बहरहाल, बात मनुस्मृति दहन कार्यक्रम की। इस कार्यक्रम में शामिल लोगों को पांच संकल्प दिलाए गए।

1. मैं जन्म आधारित चार वर्णों में विशवास नहीं रखता हूं।

2. मैं जाति भेद में विश्वास नहीं रखता हूं।

3. मेरा विश्वास है कि जातिभेद हिन्दू धर्म पर कलंक है और मैं इसे खत्म करने की कोशिश करूंगा।

4. यह मान कर कि कोई भी ऊंचा-नीचा नहीं है, मैं कम से कम हिन्दुओं में आपस में खान-पान में कोई प्रतिबंध नहीं मानूंगा।

5. मेरा विश्वास है कि दलितों का मंदिर, तालाब और दूसरी सुविधाओं में सामान अधिकार है।

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