सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि वह बिहार में जाति सर्वेक्षण प्रक्रिया पर तब तक रोक नहीं लगाएगा जब तक कि उनके खिलाफ प्रथम दृष्टया कोई मामला नहीं बन जाता। दरअसल, बिहार सरकार को सर्वेक्षण की अनुमति देने के पटना हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली कई याचिकाएं दी गईं थी। शीर्ष अदालत ने उनकी सुनवाई करते हुए उक्त टिप्पणी की। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को इस मुद्दे पर सात दिनों के भीतर अपना जवाब दाखिल करने की भी अनुमति दी, क्योंकि उन्होंने कहा था कि सर्वेक्षण के कुछ परिणाम हो सकते हैं।
वहीं, तुषार मेहता ने कहा कि हम इस तरह या उस तरह के चक्कर में नहीं हैं। लेकिन इस अभ्यास के कुछ परिणाम हो सकते हैं और इसलिए हम अपना जवाब दाखिल करना चाहेंगे। लेकिन मेहता ने इस विवादास्पद अभ्यास के संभावित परिणामों के बारे में विस्तार से नहीं बताया। इसके बाद न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और एसवीएन भट्टी की पीठ ने मेहता के अनुरोध पर कार्यवाही स्थगित कर दी। दरअसल, यह पीठ उच्च न्यायालय के एक अगस्त के फैसले को चुनौती देने वाले विभिन्न गैर सरकारी संगठनों और व्यक्तियों द्वारा दायर याचिकाओं की सुनवाई कर रही है।
याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने अदालत से राज्य सरकार को डेटा प्रकाशित करने से रोकने का निर्देश देने की मांग की। इस पर पीठ ने कहा कि आप देख रहे हैं दो चीजें हैं। एक डेटा का संग्रह है, जिसका काम खत्म हो गया है। दूसरा डेटा का विश्लेषण है, जो सर्वेक्षण के दौरान एकत्र किया गया है। दूसरा भाग अधिक कठिन और समस्या ग्रस्त है। जब तक आप (याचिकाकर्ता) प्रथम दृष्टया मामला बनाने में सक्षम नहीं हो जाते, हम कुछ भी रोकने नहीं जा रहे हैं। इसमें कहा गया है कि बिहार सरकार ने पिछली सुनवाई के दौरान आश्वासन दिया था कि वह डेटा प्रकाशित नहीं करने जा रही है।
जब रोहतगी ने बिहार सरकार को रोक लगाने का आदेश देने पर जोर दिया। इस पर पीठ ने कहा कि राज्य के पक्ष में पहले ही फैसला आ चुका है। यह इतना आसान नहीं है। जब तक प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता, हम इस पर रोक नहीं लगाने वाले हैं।
बिहार सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील श्याम दीवान ने दलील दी कि आदेश में कुछ भी दर्ज नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही राज्य पर कोई रोक नहीं होनी चाहिए।
पीठ ने कहा कि मामले को आगे की दलीलें सुनने के लिए आज सूचीबद्ध किया गया था। हम शुक्रवार को वरिष्ठ वकील सीएस वैद्यनाथन को लगभग 20 मिनट तक सुन चुके हैं। साथ ही सॉलिसिटर जनरल मेहता द्वारा केंद्र का जवाब दाखिल करने के लिए समय मांगने के बाद मामले को 28 अगस्त को फिर से शुरू करने के लिए सूचीबद्ध किया गया।
18 अगस्त को शीर्ष अदालत ने पूछा था कि अगर किसी व्यक्ति ने जाति सर्वेक्षण के दौरान जाति या उप-जाति का विवरण प्रदान किया तो इसमें क्या नुकसान है, जबकि किसी व्यक्ति का डेटा राज्य द्वारा प्रकाशित नहीं किया जा रहा था। सर्वेक्षण को चुनौती देने वाले एनजीओ ‘यूथ फॉर इक्वेलिटी’ की ओर से पेश हुए वैद्यनाथन ने कहा था कि यह अभ्यास लोगों की निजता के अधिकार का उल्लंघन है।
बिहार सरकार ने शुक्रवार को कहा था कि जाति सर्वेक्षण छह अगस्त को पूरा हो गया था। वहीं, एकत्रित डेटा 12 अगस्त तक अपलोड किया गया था। सर्वेक्षण के दौरान एकत्र किए गए डेटा को BIJAGA (बिहार जाति आधार गणना) ऐप पर अपलोड किया गया है। इसने कहा था कि डेटा तक केवल सरकारी विभाग ही पहुंच सकते हैं। शीर्ष अदालत ने सात अगस्त को जाति सर्वेक्षण को हरी झंडी देने के पटना उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था।
गैर सरकारी संगठनों ‘यूथ फॉर इक्वेलिटी’ और ‘एक सोच एक प्रयास’ द्वारा दायर याचिकाओं के अलावा, एक और याचिका नालंदा निवासी अखिलेश कुमार ने दायर की है। उन्होंने तर्क दिया है कि इस अभ्यास के लिए राज्य सरकार द्वारा जारी अधिसूचना संवैधानिक जनादेश के खिलाफ है। कुछ अन्य याचिकाएं भी हैं। कुमार की याचिका में कहा गया है कि संवैधानिक जनादेश के संदर्भ में, केवल केंद्र सरकार ही अकेले जनगणना करने का अधिकार रखती है।
वकील बरुण कुमार सिन्हा के माध्यम से दायर याचिका में कहा गया है कि बिहार सरकार द्वारा ‘जनगणना’ आयोजित करने की पूरी कवायद बिना अधिकार और विधायी क्षमता के है, और दुर्भावनापूर्ण है। पहले हाई कोर्ट ने अपने 101 पन्नों के फैसले में कहा था कि हम राज्य की कार्रवाई को पूरी तरह से वैध पाते हैं। यह न्याय के साथ विकास प्रदान करने के वैध उद्देश्य के साथ उचित क्षमता के साथ शुरू की गई है।
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