आज है लोकपर्व चौरचन: डूबते सूरज को ही नहीं कलंकित चांद को भी पूजता है मिथिला, जानिए कैसे शुरू हुई ये खास परंपरा…
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बिहार के मिथिलांचल में प्रकृति से जुड़े हुए काफी सारे त्यौहार मनाए जाते हैं। जैसे कि सूर्य देव की आराधना करने के लिए छठ पर्व मनाए जाते हैं तो इसी तरह चंद्र देव की आराधना करने के लिए चौरचन का त्योहार मनाया जाता है। चौरचन के त्यौहार को चौठ चंद्र त्यौहार भी कहा जाता है। कहा जाता है कि भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र देव की पूजा करने से साधक को शारीरिक और मानसिक समस्याओं के मुक्ति मिलती है। मिथिला पंचाग के अनुसार चौरचन का त्योहार आज 18 सितंबर सोमवार को मनाया जा रहा है। इस दिन चंद्र देव की पूजा की जाती है। यह पर्व मिथिला में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है।
चौरचन के दिन यहां महिलाएं सुबह से लेकर शाम तक निर्जल उपवास रखती हैं और शाम को चंद्रमा को अर्घ देकर उपवास को खोलती है। महिलाएं अपने पुत्रों की दीर्घायु के लिए यह व्रत रखती हैं। इस त्योहार पर तरह-तरह के मीठे पकवान जैसे की खीर मिठाई गुझिया और फल आदि रखे जाते हैं। इस त्यौहार में दही का काफी ज्यादा महत्व है। पूजा में दही का शामिल करना बहुत जरूरी माना जाता है।
शाम के समय घर के आंगन को गाय के गोबर से लिप कर साफ किया जाता है। इसके बाद कच्चे चावल को पीसकर रंगोली तैयार की जाती है और इस रंगोली से आंगन को सजाया जाता है। इसके बाद केले के पत्ते की मदद से गोलाकार चांद बना कर पूजा की जाती है और चंद्रोदय के समय चंद्र देव को अर्ध्य देते हैं। घर के सभी सदस्य पूजा स्थल पर प्रसाद ग्रहण करते हैं। चांद के दर्शन के बाद ही ये व्रत पूरा माना जाता है।
मिथिलांचल में हर वर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चौरचन मनाया जाता है। इस दिन चंद्र देव की विधि विधान से पूजा-उपासना की जाती है। धार्मिक मान्यता है कि भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को चंद्र देव की पूजा करने से साधक को शारीरिक और मानसिक कष्टों से मुक्ति मिलती… pic.twitter.com/E2Lb53LNlu
— Samastipur Town (@samastipurtown) September 18, 2023
मिथिला में चौरचन मनाने की रही है परंपरा :
चौरचन पूजा यहां के लोग सदियों से इसी अर्थ में मनाते आ रहे हैं। पूजा में शरीक सभी लोग अपने हाथ में कोई न कोई फल जैसे खीरा व केला रखकर चांद की अराधना एवं दर्शन करते हैं। चौठचंद्र की पूजा के दौरान मिट्टी के विशेष बर्तन, जिसे मैथिली में अथरा कहते हैं, में दही जमाया जाता है। इस दही का स्वाद विशिष्ट एवं अपूर्व होता है।
चौरचन की महत्वता:
मिथिला एक ऐसा स्थान है जहां पर प्रकृति से जुड़े हुए काफी सारे त्यौहार मनाए जाते हैं; जैसे कि सूर्य देव की आराधना करने के लिए छठ पर्व मनाए जाते हैं तो इसी तरह चंद्र देव की आराधना करने के लिए चौरचन का त्योहार मनाया जाता है। इस त्यौहार की महत्वता इसीलिए है क्योंकि कहते हैं कि चंद्र देव की पूजा करने से व्यक्ति झूठे कलंक से बच जाता है। कहती हैं कि इस दिन यदि चंद्र देव की पूजा अर्चना की जाए तो चंद्र देव प्रसन्न होते हैं और व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर देते हैं।
ये भी है मान्यता :
कहते हैं कि जो व्यक्ति गणेश चतुर्थी की शाम भगवान गणेश के साथ चंद्र देव की पूजा करता है. वह चंद्र दोष से मुक्त हो जाता है. बता दें कि चतुर्थी (चौठ) तिथि में शाम के समय चौरचन पूजा होती है. चौरचन पर्व के बारे में पुराणों में ऐसा वर्णन मिलता है कि इसी दिन चंद्रमा को कलंक लगा था. इसलिए इस दिन चांद को देखने की मनाही है.
चौरचन त्योहार से जुड़ी हुई कथा :
एक पुरातन कथा अनुसार, 1 दिन भगवान गणेश अपने वाहन मूषक के साथ कैलाश का भ्रमण कर रहे थे. तभी अचानक उन्हें चंद्र देव के हंसने की आवाज आई. भगवान गणेश को उनके हंसने का कारण समझ में नहीं आया इसीलिए उन्होंने चंद्रदेव से इसका कारण पूछा. चंद्रदेव ने कहा कि भगवान गणेश का विचित्र रूप देखकर उन्हें हंसी आ रही है, साथ ही उन्होंने अपने रूप की प्रशंसा करनी ही शुरु कर दी. मजाक उड़ाने की इस प्रवृत्ति को देखकर गणेश जी को काफी गुस्सा आया. उन्होंने चंद्र देव को श्राप दिया और कहा कि जिस रूप का उन्हें इतना अभिमान है वह रूप आज से करूप हो जाएगा. कोई भी व्यक्ति जो चंद्रदेव को इस दिन देखेगा, उसे झूठा कलंक लगेगा. भले ही व्यक्ति का कोई अपराध ना भी हो परंतु यदि वह इस दिन चंद्र देव को देख लेगा तो वह अपराधी ही कहलाएगा.
चौरचन के दिन दही का महत्व :
चौरचन की पूजा के दौरान दही का काफी महत्व है; इसीलिए इस दिन मिट्टी के बर्तन में दही जमाया जाता है. कहते हैं कि इस तरह करने से दही का स्वाद बहुत ही खास हो जाता है. इसी दही को पूजा के दौरान इस्तेमाल किया जाता है. इसके अलावा बांस के बर्तन में विशेष खीर तैयार की जाती है, जिसका भोग चंद्रदेव को लगाया जाता है.
अन्य इलाकों में यह देखने को नहीं मिलता है :
अन्य इलाकों में यह देखने को नहीं मिलता है. इस पर्व में पकवान बनाने से अधिक हर किसी को पकवान उपलब्ध हो इसकी व्यवस्था की जाती है. सन्तान की उन्नति और कलंक से बचाव की कामना से इस दिन चन्द्रमा की आराधना की जाती है. भवनाथ झा कहते हैं कि 16वीं सदी से पहले चंद्र पूजन की मिथिला में भी परंपरा नहीं दिखती है. चौठ चंद्र का सबसे पुराना उल्लेख ब्रह्मपुराणक में मिलता है. वहां उल्लेखित कथानुसार श्री कृष्णा को स्मयंतक मणि चोरी करने का कलंक लगा था, यह मणि प्रसेन ने चुराई थी. एक सिंह ने प्रसेन को मार दिया था फिर जामवंत ने उस सिंह का वध कर वह मणि हासिल किया था.
इसके बाद श्री कृष्णा ने जामवंत को युद्ध में पराजित कर इस मणि को हासिल कर कलंकमुक्त हुए थे. इस आधार पर यह मान्यता रही कि चौठ का चंद्र देखने के कारण जब स्वयं नारायण पर कलंक लग गया, तो मनुष्य कैसे कलंक से बच पायेगा. 14वीं शती में चण्डेश्वर उपाध्याय लिखिल ग्रन्थ “कृत्यरत्नाकर” में भी चौठचंद्र का उल्लेख मिलता है. उसमें भी वर्णित है कि भाद्र शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रमा का दर्शन करने से मिथ्या कलंक लगता है. उस दिन चन्द्रमा का दर्शन नहीं करना चाहिए. कमोवेश यही मान्यता आज भी पूरे भारत में है, लेकिन मिथिला में लोग चंद्र दर्शन और चंद्र पूजा करते हैं.