समस्तीपुर: राष्ट्रकवि दिनकर ने टभका स्थित ससुराल गांव में बनवाई थी ‘जनता पुस्तकालय’, यहां साहित्यिक गतिविधियों पर लगती थी चौपाल, होती थी काव्य गोष्ठी
‘दिनकर’ की स्मृतियों को सहेजना हम सबकी जिम्मेदारी
विनय भूषण द्वारा लिखित
समस्तीपुर/विभूतिपुर :- दो में से क्या तुम्हें चाहिए कलम या कि तलवार…मन में ऊंचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार…राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की उक्त पंक्तियां यह बताने के लिए काफी हैं कि इन्होंने रचनाओं को मनोरंजन का साधन नहीं बल्कि, लोगों को जागृत करने का जरिया बनाया। इनका साहित्य में क्या कद है ? अगर, यह जानना हो तो उर्वशी, रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, संस्कृति के चार अध्याय, परशुराम की प्रतीक्षा और दिनकर की डायरी पढ़ लीजिए।
इससे भी मन न भरे तो रेणुका, हुंकार, सामधेनी, हाहाकार, चक्रव्यूह, रसवन्ती, बापू, इतिहास के आंसू, हारे को हरि नाम, द्वंद्वगीत, धूपछांह, नीम के पत्ते आदि का अध्ययन करिए। आप इन रचनाओं में एक ऐसे शब्दों के साधक से परिचित होंगे, जो सत्ता के साथ रहकर भी पुरजोर विरोध करने का दमखम रखते थे। किसी खांचे या सांचे में फिट नहीं बैठने के बावजूद साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ, पद्मभूषण समेत कई बड़े सम्मान से नवाजे गए। आज विदेशों में प्रवासी भारतीय समेत पूरा देश ‘दिनकर’ की जयंती मना रहा है। ऐसे में हम इनके सपनों, संस्मरणों और टूटते-बिखरते धरोहरों को सहेजने की अपील करते हुए इन्हें नमन करते हैं।
ससुराल गांव टभका में ‘दिनकर’ ने बनवाई थी ‘जनता पुस्तकालय’ :
23 सितम्बर 1908 को बेगुसराय जिला अंतर्गत सिमरिया में जन्मे एक युवक का हाथ समस्तीपुर के टभका निवासी रामरक्षा ठाकुर की पुत्री श्यमावती देवी ने थामा तो वे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कहलाए। जब, वे राष्ट्रवादी कविताओं के कारण विद्रोह के कवि और हिन्दी भाषियों के बीच काफी लोकप्रिय हो चले थे तब अपने ससुराल गांव टभका में ‘जनता पुस्तकालय’ की स्थापना की थी। भले यह बात लोगों के गले नहीं उतरे लेकिन, यह सच है कि जब इनकी रचनाएं देश में प्रकाश पुंज बिखेर रही थी तब इन्होंने अपनी कलम में स्याही इसी सोंधी मिट्टी से भरी थी। यहां से लेखनी के दम पर अंग्रेजों को दहकाया भी और सत्ता की मदहोशी को हड़काया भी।
समस्तीपुर: राष्ट्रकवि दिनकर ने टभका स्थित ससुराल गांव में बनवाई थी 'जनता पुस्तकालय', यहां साहित्यिक गतिविधियों पर लगती थी चौपाल, होती थी काव्य गोष्ठी। टभका में राष्ट्रकवि 'दिनकर' की 'जनता पुस्तकालय' अपना अस्तित्व खो चुकी है। टभका में राष्ट्रकवि 'दिनकर' की 'जनता पुस्तकालय' अपना… pic.twitter.com/VjbXM3R2Ia
— Samastipur Town (@samastipurtown) September 23, 2023
टभका के लोग बताते हैं कि वर्तमान में वार्ड एक स्थित ब्रह्मस्थान परिसर में ‘दिनकर’ ने ईंट-खपड़ैल से निर्मित तीन कमरा वाले ‘जनता पुस्तकालय’ बनवाई थी। यह लकड़ी के बने दो अलमीरा, एक टेबुल, चार कुर्सी, त्रिपाल, प्रसाधन और बैठक पंजी व पुस्तकों आदि से लैस थे। यहां रोशनी के लिए रेंड़ी के तेल व ढ़िबरी की व्यवस्था थी। वर्ष 1934-35 में जब ‘दिनकर’ दलसिंह सराय में सब-रजिस्ट्रार थे तब ससुराल गांव इनका पांव पैदल भी आना-जाना होता था।
उस जमाने में पुस्तकालय परिसर में साहित्यिक गतिविधियों की चौपाल लगती थी। ‘दिनकर’ के नेतृत्व में काव्य गोष्ठी होती थी। इसे पंजी में दर्ज किया जाता था। स्थानीय हरेकृष्ण ठाकुर, नंदकिशोर ठाकुर, ललित प्रसाद ठाकुर, संजीव कुमार ठाकुर, चंद्रभूषण ठाकुर, जयकृष्ण ठाकुर, विद्यानंद ठाकुर, मुकुंद ठाकुर, रमेश ठाकुर, उमाशंकर ठाकुर, माधव शरण ठाकुर, मुखिया विजय कुमार चौधरी आदि कहते हैं कि वर्ष 1970-80 के दशक में ‘जनता पुस्तकालय’ जीर्णशीर्ण हो गया।
ग्रामीणों ने पुस्तकालय के भीतर रखे सामानों को निकाल कर गांव के हरि बल्लभ ठाकुर के घर पर रखा था। इनके घर अगलगी की घटना में सब जलकर राख हो गया। पूर्वजों का हवाला देकर ये कहते हैं कि राष्ट्रकवि ने ‘जनता पुस्तकालय’ की स्थापना टभका में शायद, इस मंशे के साथ की थी कि क्षेत्र में साहित्यिक गतिविधियां जीवंत रहे। इससे आने वाली पीढ़ी लाभान्वित हो।
‘दिनकर’ की स्मृतियों को सहेजना हम सबकी जिम्मेदारी :
टभका में राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ की ‘जनता पुस्तकालय’ अपना अस्तित्व खो चुकी है। समाजसेवी राजीव रंजन कुमार ने वर्ष 2014 में इनकी प्रतिमा स्थापित करवा कर स्मृतियों को संबल दिया है। कविवर चांद मुसाफिर के नेतृत्व में डॉ. सच्चिदानंद पाठक, प्रो. शशिभूषण चौधरी, रामविलास ठाकुर प्रवासी, हरेकृष्ण ठाकुर, ललित ठाकुर, रामाकांत राय रमा, प्रियरंजन ठाकुर, सुमन मिश्रा, फिल्म अभिनेता अमिय कश्यप आदि द्वारा प्रतिवर्ष ‘दिनकर’ जयंती और पुण्यतिथि पर उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि दिए जा रहे। कवि सम्मेलन का आयोजन कर साहित्यिक गतिविधियों को जीवंत करने का प्रयास जारी है। मगर, यहां उपलब्ध भूमि की चाहर दिवारी, पुस्तकालय का पुनर्निर्माण और इसे पुस्तकों से लैस करने की ख्वाहिश अब भी अधूरी है। किसी तारणहार की प्रतीक्षा है, जो इसे सहेज सके। अतीत से जोड़कर नई पीढ़ी को राष्ट्रकवि के ससुराल गांव टभका की यादें तरो-ताजा करा सके।