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क्या ममता की चाल से INDIA अलायंस में पड़ गई फूट, खरगे पर नीतीश-लालू को क्यों सबसे ज्यादा ऐतराज?

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2024 के आगामी लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को हराने के लिए बने 28 दलों के विपक्षी गठबंधन ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ (INDIA) के घटक दलों की चौथी बैठक मंगलवार को नई दिल्ली के अशोका होटल में हुई। तीन घंटे चली इस बैठक में फैसला किया गया कि अगले महीने यानी जनवरी, 2024 के दूसरे सप्ताह तक सीट बंटवारे को अंतिम रूप दे दिया जाय । हालांकि, इस बैठक में विपक्षी गठबंधन के पीएम चेहरे पर कोई फैसला नहीं हो सका लेकिन बैठक के दौरान ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में दलित चेहरे के तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नाम का प्रस्ताव रख दिया।

अब राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि INDIA गठबंधन के अंदरखाने इस प्रस्ताव पर विवाद छिड़ गया है। मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद अध्यक्ष लालू यादव इस प्रस्ताव से नाराज हो गए हैं। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेन्स से पहले ही दोनों नेता होटल से निकल गए। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी नाराज बताया जा रहा है। हालांकि, उन्होंने अभी चुप्पी साध रखी है।

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लालू-नीतीश क्यों नाराज?

बैठक से पहले खूब बोलने वाले लालू ने कहा था कि मीटिंग में सब अच्छा होगा लेकिन बैठक के बाद तुरंत वहां से निकल गए। कहा जा रहा है कि लालू चाहते थे कि इस बैठक में नीतीश कुमार को इंडिया गठबंधन का संयोजक बनाया जाय लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उलटे ममता बनर्जी ने दलित कार्ड खेलते हुए मल्लिकार्जुन खरगे का नाम प्रस्तावित कर दिया।

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दरअसल, जेडीयू और राजद दोनों की मंशा है कि नीतीश कुमार अब इंडिया गठबंधन के प्रधानमंत्री पद के ना सिर्फ उम्मीदवार बनें बल्कि वह उस पद पर काबिज भी हों। जेडीयू की चाहत इसलिए है कि उसकी पार्टी के नेता प्रधानमंत्री बनेंगे तो उनके लोग मंत्री से लेकर सत्ता के शीर्ष शिखर पर बैठ सकेंगे। वहीं लालू की चाहत है कि नीतीश अब केंद्र की राजनीति करें। वह इंडिया गठबंधन को लीड करें और 2024 में प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनें।

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नीतीश को पीएम बनाने की चाहत लालू को क्यों?

ऐसा कर लालू एक तीर से दो निशाना साधना चाहते हैं। पहली तो यह कि नीतीश कुमार को केंद्र की राजनीति में भेजकर बेटे तेजस्वी यादव के लिए बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी और एक अन्ने मार्ग दिलाना चाहते हैं और दूसरा वह पिछड़ी जाति के मसीहा के रूप में नीतीश के साथ एक मशहूर जोड़ी बनना चाहते हैं। दोनों नेताओं ने जब से हाथ मिलाया है, तब से बिहार में ना केवल जातीय जनगणना हुई बल्कि उसके आंकड़ों के आधार पर राज्य में नई आरक्षण नीति भी मंजूर कर ली गई है।

इससे कई राज्यों खासकर बिहार से सटे उत्तर प्रदेश, झारखंड, ओडिशा में पिछड़े वर्ग का आंदोलन फिर से तेज होने लगा है। राष्ट्रीय फलक पर भी कांग्रेस जाति जनगणना की मांग करने लगी है और वादे करने लगी है कि उनकी सरकार बनने पर जाति जनगणना होगी और उसके अनुसार आरक्षण की सीमा बढ़ाई जा सकेगी।

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आगे क्या?

लालू को उम्मीद है कि पीएम पद पर फैसला लेने से पहले कांग्रेस उनसे और नीतीश के साथ मंत्रणा करेगी। पिछले दिनों लालू प्रसाद राहुल गांधी को जाति जनगणना से लेकर ओबीसी वर्ग को लुभाने तक का मटन मंत्र दे चुके हैं। यही वजह रही कि कर्नाटक चुनाव के बाद से लगातार कांग्रेस ओबीसी वर्ग को लुभाने में जुटी है। ऐसे में माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनावों में ओबीसी चेहरा और विकास पुरुष की छवि वाले नरेंद्र मोदी की जगह उसी तरह की छवि वाले नीतीश कुमार को आगे किया जा सकता है।

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मंडल कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक देश में ओबीसी की आबादी 52 फीसदी है। पिछले महीने अक्टूबर में बिहार में जारी जाति गणना की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में ओबीसी की आबादी 63 फीसदी से ऊपर है, जबकि सामान्य वर्ग की आबादी 15.52 फीसदी, अनुसूचित जाति की आबादी 19 और अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.68 फीसदी है। यूपी में भी ओबीसी आबादी करीब 50 फीसदी है।

दलित कार्ड की क्या हकीकत? 

अगर दलित कार्ड के तौर पर खरगे को पीएम पद का चेहरा बनाया जाता है तो इंडिया गठबंधन में फूट पड़ने का खतरा अधिक है। इसके संकेत मिल चुके हैं। दूसरी तरफ खुद खरगे ने साफ तौर पर कह दिया है कि चुनाव बाद ही इस पर फैसला करेंगे। उन्होंने कहा, ”हम पहले जीतने की कोशिश करेंगे, उसके बाद सांसद लोकतांत्रिक ढंग से फैसला करेंगे।”

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वैसे भी यह कार्ड आगामी लोकसभा चुनावों में अधिक कारगर होता नहीं दिख रहा है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर दलित वर्ग का किसी एक दल की तरफ स्प्ष्ट झुकाव का अभाव है। दलित वोट बैंक विभिन्न दलों के बीच खंडित है और क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व भी पिछले कुछ चुनावों में टूटता नजर आया है। वह अब अधिकांश सत्ता के साथ झुकाव रखता दिख रहा है। यूपी में ही 2011 की जनगणना के अनुसार 20.69 फीसदी अनुसूचित जाति की आबादी है। पहले यह बसपा का कोर वोट बैंक था लेकिन अब बसपा की हालत खराब है क्योंकि दलित जातियों का बड़ा हिस्सा लाभार्थी वर्ग में तब्दील होकर बंट चुका है और बीजेपी की तरफ झुक चुका है।

प्रेशर पॉलिटिक्स का दांव

दूसरी बात कि मल्लिकार्जुन खरगे के नाम से ना तो यूपी और ना ही बिहार-झारखंड, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और बंगाल जैसे राज्यों में दलित वर्ग को लुभाया जा सकता है, जहां उनकी आबादी 20 फीसदी से ज्यादा है। तीसरी बात कि मौजूदा समय में कांग्रेस इतनी मजबूत नहीं है कि वह राजद-जदयू और सपा को नाराज कर सके। इसलिए नीतीश-लालू का रूठकर बैठक से निकलना एक तरह से प्रेशर पॉलिटिक्स का उदाहरण हो सकता है।

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