समस्तीपुर/विद्यापतिनगर [पदमाकर सिंह लाला] :- विद्यापति भारतीय साहित्य की ‘श्रृंगार-परम्परा’ के साथ-साथ’ भक्ति-परम्परा’ के प्रमुख कवि के साथ मैथिली के सर्वोपरि कवि हैं। उनका जन्म बिहार के जिला मधुबनी के बिस्फी में माना जा जाता है। इनके काव्यों में मध्यकालीन मैथिली भाषा के स्वरूप का दर्शन किया जा सकता है। इन्हें वैष्णव, शैव और शाक्त भक्ति के सेतु के रूप में भी स्वीकार किया गया है।
मिथिला के लोगों को ‘देसिल बयना सब जन मिट्ठा’ का सूत्र दे कर इन्होंने उत्तर-बिहार में लोकभाषा की जनचेतना को जीवित किया है। मिथिलांचल के लोकव्यवहार में प्रयोग किये जानेवाले गीतों में आज भी विद्यापति की श्रृंगार और भक्ति-रस में पगी रचनाएँ जीवित हैं। पदावली और कीर्तिलता इनकी अमर रचनाएं हैं।
गंगा नदी के उत्तर में अवस्थित मऊ-बाजिदपुर गांव आज मिथिलांचल ही नहीं, बल्कि संपूर्ण देश में आध्यात्म, भक्ति, साहित्य और संस्कृति का संगम स्थल बना हुआ है। इतिहासकारों के मुताबिक अवध के नवाब बाजिद अली शाह के नाम पर स्थापित था यह गांव। वर्तमान में यह बालेश्वर स्थान विद्यापतिधाम के नाम से मशहूर है। इस स्थान पर मैथिली, संस्कृत, बंगला, अवधी व अवहट्ट भाषा के विद्वान कवि कोकिल विद्यापति ने समाधि ली थी। यहीं कवि कोकिल विद्यापति जी के आह्वान पर माता गंगा स्वयं यहां पर पहुंची तथा तथा उन्हें ‘कार्तिक शुक्ल त्रयोदशी ‘ को अपने अंक में समेटते हुए लौट गई थीं। किदवदंतियों के मुताबिक यहां स्वयं भगवान शिव महाकवि की भक्ति भावना से प्रसन्न होकर स्वस्फूर्त विराजमान हुए थे। समस्तीपुर जिले के दलसिंहसराय से 8 किलोमीटर दक्षिण तथा बेगूसराय जिले के बछवाड़ा प्रखंड से आठ किलोमीटर पश्चिम अवस्थित यह तीर्थ स्थल पक्की सड़कों व रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है।
मैथिल कोकिल महाकवि विद्यापति भगवान शिव के अनन्य भक्त थे। इसकी भक्ति भाव से प्रसन्न हो महादेव विद्यापति के घर बतौर नौकर (उगना) बन जीवन के अवसान काल में चमथा गंगा घाट पर स्नान करने के लिए चले। तभी रास्ते में वियावान जंगल में प्यास लगी। विद्यापति को बैचैन देखकर उगना महादेव ने एक पेड़ की आड़ में छिपकर अपनी जटा से गंगाजल एक पात्र में भरकर ले गए।जल पीते ही विद्यापति ने कहा कि उगना यह तो गंगाजल है। इस बियावान जंगल में यह कहां से आया। विद्यापति द्वारा काफी मान मनौव्वल व इसे अपने जेहन तक ही रखने की बात पर उगना ने राज खोला तो विद्यापति प्रभु के चरणों पर गिर गए।
कालांतर में विद्यापति की अनुपस्थिति में उगना द्वारा विद्यापति की पत्नी के एक काम को मनोनुकूल नहीं करने पर। विद्यापति की पत्नी ने खोरनाठी (अर्ध जली लकड़ी) से मार बैठी। तभी घटना की जानकारी मिलते ही विद्यापति के मुख से वह राज खुल गया। महादेव अंतर्ध्यान हो गए।
उसी समय विद्यापति ने उगना महादेव की खोज करने के क्रम में तत्काल मऊ-बाजिदपुर पहुंचेे। निकटवर्ती गंगा तट पर अवसान के समय भक्त विद्यापति की पुकार पर मां जाह्नवी गंगा ने स्वंय उक्त स्थान पर पहुंच विद्यापति को अपने अंक में समेट लिया था। उक्त घटनाक्रम के अवशेष रौंताधार के रूप में आज भी विद्यमान है।
किवंदंतियों के अनुसार स्थानीय मलकलीपुर डयोढी के जमींदार गोकुल प्रसाद सिंह की गाय अक्सर उक्त स्थान पर अपना दूध गिरा देते थी। घर पहुंचने पर चरवाहों को डांट पड़ती थी। चरवाहे द्वारा निगरानी करने के दौरान पता चला कि गाय एक नियत स्थान पर दूध स्वंय गिरा देती थी। जमींदार के अवलोकन पर पता चला कि वहां स्वयंभू शिवलिंग है। तत्काल खपरैल नुमा मंदिर बनवाया गया। बाद में केवटा के जमींदार भेषधारी चौधरी को पुत्र नहीं हो रहा था। उन्होंने मनोयोग से भगवान शिव की पूजा अराधना की। वृद्धावस्था में पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उन्होंने उस बालक का नाम बालेश्वर रखाा तथा वर्तमान मंदिर का निर्माण सन 1898 ई. में करवाया। तभी से यह बालेश्वर स्थान के नाम से मशहूर है। अब विद्यापतिधाम उगना महादेव मंदिर के रूप में इसकी ख्याति है।
गंगा की सहायक वाया नदी के तट पर बसा यह स्थान आज लाखों शिव भक्तों की आस्था,श्रद्धा व विश्वास का केंद्र बन चुका है। यहां से मात्र चार किलोमीटर दक्षिणवर्ती इलाके में गंगा नदी है। जहां चौमथ (चमथा) घाट पर राजा जनक अपने पुष्पक विमान से नित्य स्नान करने आते थे। इसी स्थान से दो किलोमीटर दक्षिण-पूर्व इलाके मऊ गांव में संत रमता जोगी व बाबा गरीबनाथ की चिरसमाधि है। जहां दर्शन को प्रतिदिन सैंकड़ों श्रद्धालुओं की कतार लगी रहती है। भक्त कवि विद्यापति की पुकार पर आने वाली माता गंगा के अवशेष चिह्न के रूप में रौंता धार भी महत्वपूर्ण स्थल है। वहीं किदवदंतियों से जुड़ी ब्रजमारा गाछी (जहां दस्युओं पर वज्रपात हुआ था) की रक्त युक्त मिट्टी आज भी विद्यमान है। इसके अलावा विवाह मंडप में विराजित दर्जनों भगवान की मूर्तियां पर्यटन के लिए आए लोगों को आकर्षित करती हैं।
विद्यापतिधाम मंदिर में सालों भर पूजा-अर्चना, विवाह-संस्कार, उपनयन, मुंडन आदि चलता रहता है। इसके अति महत्वपूर्ण स्थल के रूप में इसकी प्रसिद्धि मनोकामना लिग के रूप में भी है। यहां भक्त-श्रद्धालु पुत्र रत्न की प्राप्ति हेतु विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। यहां मंदिर से सटा एक पर्यटक भवन भी है। सन 1952 ई. से विद्यापति परिषद ने भक्त कवि विद्यापति की स्मृति में कार्तिक माह धवल त्रयोदशी (समाधि लेने का दिन) समारोह मनाना शुरू किया। वर्ष 2013 में बिहार सरकार की ओर से राजकीय महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। यूं तो यहां सालों भर श्रद्धालु उमड़ते हैं। सावन में एक महीने का मेला लगता है। महोत्सव के दौरान भी खूब भीड़ रहती है।
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