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समस्तीपुर: चाक की तरह चकरघिन्नी बनी कुम्हारों की जिन्दगी, क्यों पारंपरिक पेशे से नहीं जुड़ना चाहती है युवा पीढ़ी ?

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समस्तीपुर : समय के साथ काफी चीजें तो बदली, लेकिन मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हारों की जिंदगी नहीं बदली। इनकी आर्थिक स्थित आज भी जस की तस है। समय का पहिया रफ्तार पकड़ रहा है, लेकिन कुम्हारों के चाक की रफ्तार धीमी होती गई। त्योहार आने से कुम्हारों चेहरे पर थकान के साथ उम्मीद भी है। दस साल पहले जिस दाम पर मूर्ति व दीया बिकता था, बढ़ती महंगाई के साथ उसके भी दाम भले ही बढ़े लेकिन उसे बनाने की प्रकियाएँ और भी जटिल हो गईं हैं। समस्तीपुर जिले के जितवारपुर हसनपुर वार्ड-15 में 12 से 15 घर कुम्हारों के हैं जिसमें 70 से 80 कलाकार काम करते हैं। चंदेश्वर पंडित का बताना है कि पुआल, मिट्टी, बांस, सुतली, कांटी समेत अन्य सामान महंगा हो गया है। पूंजी के आभाव में अब पहले के तरह काम नहीं कर पाते हैं। सरकार के तरफ से भी हम कुम्हारों के लिये कुछ खास पहल नहीं की जा रही है।

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कुम्हारों के पूर्वज जिस तकनीक (चाक) से मिट्टी का दीया, हड़िया, कलश, गुल्लक समेत अन्य बर्तन भी बनाते थे। वे लोग भी उसी पुराने चाक से काम कर रहे हैं। आधुनिक युग में भी हाथ से चाक चलाना पड़ रहा है। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है कि वे बिजली से चलने वाला इलेक्ट्रिक चाक ले सकें। अपनी दुर्दशा बताते हुए अरूण पंडित अपना चाक चलाने लगते हैं। सरस्वती पूजा में मूर्ति बनाने के काम की तेजी के कारण वह ज्यादा बात नहीं कर पाते। वहीं घर की युवा बेटी सुप्रिया पंडित भी वहीं मूर्ति बनाने का ही काम कर रही थी। पूछे जाने पर उसने बताया की हम लोग कई पुश्तों से इस काम को करते चले आ रहे हैं। लेकिन अब युवा पीढ़ी इस काम को नहीं करना चाहती है। मेरी उम्र के अधिकतर लोग अपने इस पारम्परिक काम को आगे बढ़ा रहे हैं। मेहनत न कर पाने के कारण युवा पीढ़ी इस कला को नजर अंदाज कर रही है। इलेक्ट्रिक मशीनों के कारण विद्युत बिल इतना है कि हम वहन नहीं कर सकते। कुछ लोगों को सरकार की तरफ से इलेक्ट्रिक चाक मिली है जिससे वहलोग कुल्हड़ बनाने का काम करते हैं।

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इस दौरान दिनेश पंडित ने बताया मिट्टी के बर्तन बनाना भारत में सबसे पुराना व्यापार माना जाता है। एक समूह के रूप में कुम्हार खुद को प्रजापति के रूप में पहचानते है। अतीत में कुम्हार अपना सामान बेचने के लिए एक-जगह से दूसरी जगह तक जाते थे। समय के साथ यह प्रथा खत्म हो गई और मिट्टी के बने बर्तनों की जगह टिकाऊ और प्लास्टिक जैसे चीजों ने ले ली है। पारम्परिक तौर पर काम करता आ रहा कुम्हार समुदाय आज हाशिए के वर्ग की एक ईकाई है। यही वजह है कि आज की पीढ़ी इस काम से अलग रोजगार और सरकारी नौकरी के विकल्प तलाश रही है।

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कम हो रही मांग :

मिट्टी के बर्तन बनाकर अपनी आजीविका चलाने वाले कुम्हार जाति के लोगों ने बताया कि इस कला का जितना बढ़ावा मिलना चाहिए उतना नहीं मिला है। मिट्टी के बर्तनों को उनके कद्रदान भी कम मिल रहे हैं । ऐसे में पीढिय़ों से इस कला को जीवित रख कर अपना पेट पालने वालों को अब मिट्टी के बर्तन बेचकर आजीविका चलाने के लिए भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है । कुम्हार अपनी आजीविका चलाने के लिए चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाकर इस कला को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन परिस्थितियां उनके प्रतिकूल बनी हुई है। कड़ी मेहनत के बाद भी मूर्तिकला में आधुनिक कलात्मक देने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन इसका मुल्य नहीं मिल रहा है। कुम्हार दिन प्रतिदिन पिछड़ते ही जा रहे हैं।

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सरकार की उदासीनता :

कुम्हारों को वर्तमान समय में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। अर्जुन पंडित का बताना है कि सरकार का जरा सी ध्यान इस कला पर नहीं है। यह कला बिल्कुल उपेक्षित है। जैसे सरकार हर कला को बढ़ावा दे रही है। वैसे ही इस कला पर भी कई ध्यान देने की जरुरत है। इलेक्ट्रिक चाक कुछ लोगों को उपलब्ध कराया गया है लेकिन उसका बिजली बिल बहुत आता है। उसपर भी सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है।

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माटी कला बोर्ड के गठन की मांग :

बुजुर्ग मूर्तिकार चंदेश्वर पंडित ने सरकार व प्रशासन से कुम्हारों के उत्थान के लिये माटी कला बोर्ड बनाने की मांग की है ताकि बोर्ड की मदद से उन सभी की जिंदगी भी रौशन हो सके। उन्होंने कहा कि कुम्हार समाज के बच्चों के तकनीकी शिक्षण के लिए कौशल विकास मुफ्त प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। आज की युवा पीढ़ी अब इस काम को छोड़ रही है। अब तक हमलोग तो पूर्वजों का काम आगे बढ़ा रहे थे लेकिन आगे की पीढ़ी मूर्तिकला के काम को नहीं करना चाहती है। सरकार को युवाओं के लिए कुछ पहल करने की आवश्यकता है।

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समस्या :

1. मूर्ति बनाने में मिट्टी से लेकर बांस तक सभी सामान महंगा हो गया है, मेहनत के अनुरूप मेहनताना नहीं मिल पाता।

2. बढ़ती महंगाई के कारण मजदूरी करने की मजबूरी।

3. लागत मुल्य तक उपर नहीं कर पाते

4. सरकार के द्वारा कुम्हारों के उत्थान के लिये कोई भी योजना नहीं चलायी जा रही।

5. आने वाली युवा पीढ़ी इस कला से दूर हो रही है।

सुझाव :

1. बढ़ती हुई महंगाई में मिट्टी व मूर्ति बनाने का सामान सस्ती दरों पर उपलब्ध हो।

2. महंगाई के कारण लोग अन्य पेशों में जा रहे हैं, कुम्हारों को सही मेहनताना मिले तो यही काम करेंगे

3. महंगाई इतनी बढ़ गई है कि लागत मुल्य भी उपर नहीं हो पाता, कुम्हारों को सब्सिडी मिले।

4. कुम्हारों के उत्थान के लिये सरकार के द्वारा योजनाएं लायी जाए।

5. आने वाली पीढ़ी को मुनाफा मिलेगा तभी वह इस कला को आगे बढ़ाएंगे।

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क्या कहना है कुम्हारों का :

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पुआल, मिट्टी, बांस, सुतली, कांटी समेत अन्य सामान महंगा हो गया है। पूंजी के आभाव में अब पहले के तरह काम नहीं कर पाते हैं। सरकार के तरफ से भी हम कुम्हारों के लिये कुछ खास पहल नहीं की जा रही है।

– चंदेश्वर पंडित

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कुम्हारों के पूर्वज जिस तकनीक (चाक) से मिट्टी का दीया, हड़िया, कलश, गुल्लक समेत अन्य बर्तन भी बनाते थे। हम लोग भी उसी पुराने चाक से काम कर रहे हैं। आधुनिक युग में भी हाथ से चाक चलाना पड़ रहा है। आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है कि वे बिजली से चलने वाला इलेक्ट्रिक चाक ले सकें। 

– अरूण पंडित 

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गांव में कच्चे मकान की संख्या काफी कम हो गई है। जिस कारण छत में लगने वाले खपड़े की बिक्री नहीं के बराबर होती है। अब इस धंधे से लाभ नहीं है। सबसे ज्यादा परेशानी मिट्टी के लिए होती है। एक तो मिट्टी आसानी से उपलब्ध नहीं होता है, और होता भी है तो दाम ज्यादा लिया जाता है।

– दिनेश पंडित 

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हम लोग कई पुश्तों से इस काम को करते चले आ रहे हैं। लेकिन अब युवा पीढ़ी इस काम को नहीं करना चाहती है। मेरी उम्र के अधिकतर लोग अपने इस पारम्परिक काम को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन मेहनत न कर पाने के कारण युवा पीढ़ी इस कला को नजर अंदाज कर रही है। आज की युवा पीढ़ी नौकरी और रोजगार की ओर अग्रसर हो रही है।

– सुप्रिया पंडित

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इलेक्ट्रिक मशीनों के कारण विद्युत बिल इतना है कि हम वहन नहीं कर सकते। कुछ लोगों को सरकार की तरफ से इलेक्ट्रिक चाक मिली है जिससे वह लोग कुल्हड़ बनाने का काम करते हैं। लेकिन बिजली बिल बहुत आता है, इसपर सब्सिडी मिले।

– अप्पू पंडित 

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समय के साथ मिट्टी के बने बर्तनों की जगह टिकाऊ और प्लास्टिक जैसे चीजों ने ले ली है। कुम्हार समुदाय आज हाशिए पर है, लेकिन इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा है।

– अर्जुन पंडित 

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इस कला का जितना बढ़ावा मिलना चाहिए उतना नहीं मिला है। मिट्टी के बर्तनों को उनके कद्रदान भी कम मिल रहे हैं । ऐसे में पीढिय़ों से इस कला को जीवित रख कर अपना पेट पालने वालों को अब मिट्टी के बर्तन बेचकर आजीविका चलाने के लिए भारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। 

– शत्रुध्न पंडित 

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कुम्हार अपनी आजीविका चलाने के लिए चाक पर मिट्टी के बर्तन बनाकर इस कला को जीवित रखने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन परिस्थितियां उनके प्रतिकूल बनी हुई है। कड़ी मेहनत के बाद भी मूर्तिकला में आधुनिक कलात्मक देने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन इसका मुल्य नहीं मिल रहा है। 

– मनोज पंडित 

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कुम्हारों को वर्तमान समय में कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। यह कला बिल्कुल उपेक्षित है। जैसे सरकार हर कला को बढ़ावा दे रही है। वैसे ही इस कला पर भी कई ध्यान देने की जरुरत है।

– उमेश पंडित 

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सरकार के द्वारा इलेक्ट्रिक चाक कुछ लोगों को उपलब्ध कराया गया है लेकिन उसका बिजली बिल बहुत आता है। उसपर भी सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है।

– रामबली पंडित 

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सरकार व प्रशासन कुम्हारों के उत्थान के लिये माटी कला बोर्ड बनाये ताकि बोर्ड की मदद से कुम्हारों की जिंदगी भी रौशन हो सके। 

– जयप्रकाश पंडित


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